Saturday, December 15, 2007

रोना कभी नहीं रोना

वो लोग शायद कुछ अलग ही मिट्टी के होते होंगे जो अपनी भावनाओं को छुपा लेते होंगे, जब रुलाई फूटे, खुद को हंसाने लगो, गुस्सा आये तो कहीं घूमने चले जाओ, बच्चे को डांटने का मन हो तो प्यार से आप-आप कहकर पुचकारने लगो....... हर समय कैसे कोई नॉर्मल बिहेव कर सकता है . और जो वाकई ऐसा है, मैं उसे सलाम करती हूँ. पता नहीं इतना धैर्य कैसे रख पाते हैं लोग !
मेरी कलीग की माँ गुज़र गयीं, ऐसे में किसी को सांत्वना देना क्या और न देना क्या. बाद में इस पर चर्चा हुई तो सबके मुंह पर एक ही बात थी कि उन्होंने कैसे खुद के साथ औरों को भी संभाल रखा था. बात है भी सच, वो अपने माता-पिता की तीन बेटियों में सबसे बड़ी हैं और अगर वो इतनी मजबूती नहीं दिखाएंगी तो औरों को कैसे समझायेंगी. चर्चा आगे बढा तो कुछ ऐसी बातें होने लगीं कि ज्यादा सुसंस्कृत लोग अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रख लेते हैं , गांवों में लोग चीखें मार-मारकर रोते हैं और कई बार तो यह परम्परा ही के तहत होता है. यानी रोना भी ज़रूरी है, भले ही वो आये या नहीं।
रोने की बात चली है तो इक वाकया याद आने लगा है. कोई १८-१९ वर्ष पहले की बात है, मैं हॉस्टल जा रही थी, रास्ते मे एक जगह बस रुकी तो सबकी नज़र बाहर की तरफ अनायास ही चली गयी. एक कम उम्र की नव-विवाहिता शायद अपनी ससुराल जा रही थी अपने माँ-पिता और छोटे भाई -बहन से लिपट कर खूब रो रही थी, उसका कलपना देख कर बस में बैठे तमाम लोगों की आंखें भर आयीं , लाल साड़ी में लिपटी, गहने और बड़ी सी नथ संभालती वह लडकी अपनी सूजी हुई आंखें लिए बस मे बैठी, बगल में उसका नया-नया पति कुछ सिमटता सा बैठा. बस चल पडी, लोग अभी सहज भी न हो पाए थे कि अचानक जोर की खिलखिलाहट सुनकर सबने पीछे की सीट की तरफ सिर घुमाकर देखा. लड़की बेफिक्री से अपने पति की किसी बात पर उतनी ही जोर से हंस रही थी, जितनी जोर से कुछ देर पहले तक वो रो रही थी . लोगों में खुसर-पुसर शुरू हो गयी, लेकिन कम से कम इतना हो गया कि माहौल में जो भारीपन अब तक छाया हुआ था, वो हल्का हो गया।
रोना भी सहज है, उतना ही-जितना कि हँसना, सोना, खाना या काम करना. इतना भी सुसंस्कृत क्यों होना कि रोना आये तो रो न सकें, हँसना आये तो खुलकर हंस न सकें और किसी पर प्यार आये तो उसे जता भी न सकें. ये तो सिर्फ फिल्मों मे होता है या फिर हमारे राजनेताओं में इतनी कूवत होती है कि किसी की मौत पर बाकायदा झक सफ़ेद कपडे पहने और आँखों में काला चश्मा चढाये अपने मनोभावों को छुपा लेते हैं. हमारे जैसे साधारण लोग तो बात-बेबात रो लेते हैं, गुस्सा आये तो चीख भी लेते हैं, बच्चों को बुरी तरह डांटकर अपना तनाव कम कर लेते हैं और सच कहें तो मुझे तो ये गाना भी बिलकुल नहीं भाता -रोना कभी नहीं रोना चाहे टूट जाये कोई खिलौना ....कोई मतलब है इस बात का भला!

Wednesday, November 14, 2007

सर्दियाँ और घर

उदासी भरे दिन एक बार फिर आने लगे हैं. ऐसा आमतौर पर एक मौसम को दूसरे मौसम में तब्दील होते देखने में होता है या फिर अचानक कोई बड़ा काम ख़त्म होने के बाद पैदा हुए खालीपन में महसूस होता है. स्कूल-कॉलेज के ज़माने में ऐसे उदास और खाली दिन एक्जाम्स ख़त्म होने के बाद आते थे. मजेदार बात यह कि बहुत ज्यादा पढाई के दबाव में न जाने कितनी कविताएं मन में बनती थीं, जाने कितनी कहानियों के प्लॉट बुना करते, लेकिन परीक्षाएं ख़त्म होते ही सब कुछ दिमाग से गायब हो जाता... सर्दियों की शुरुआत के दिन पहाडों पर और बुरे होते होते हैं . ६ बजे नहीं कि ऐसा सन्नाटा कि डर सा लगने लगे. हॉस्टल के दिनों में तो जाड़ों की शामें और उदास हुआ करतीं. वो होमसिकनेस वाले दिन थे, ढलती शाम का उनीदा सा सूरज पहाडों के पार उतरने को होता, हॉस्टल के पीछे लगी रेलिंग पर काफी देर तक खड़ी रहती, जब तक कि सूरज पूरा न डूब जाता और शाम थोडी और ठंडी-अंधेरी न हो जाती . सोचा करती क्या कभी मैं भी इन पहाडों के पार जा सकूंगी, मैदानों में दौड़ सकूंगी ? बडे दिन की छुट्टियों के दौरान जैसे ही घर जाने का दिन करीब आता मैं खुश हो जाती कि अब कुछ दिन इन पहाडों से निजात मिलेगी. चारों तरफ से घिरे हुए पहाड़ कैदखाने जैसे दिखते . जैसे ही बस तराई के जंगलों में उतरने लगती , मन घर जाने की खुशी को छुपा नहीं पाता, जी में आता बस में बैठे सारे जाने-अनजाने लोगों को बता दूँ कि घर जा रही हूँ.
आज कंक्रीट के इस महानगर में उन्हीं पहाडों को देखने के लिए बार-बार छुट्टियाँ प्लान करती हूँ तो सोचती हूँ बचपन में क्यों ये पहाड़ मुझे कैदखाने की तरह लगा करते थे, क्यों इनकी खूबसूरती मुझे नहीं लुभा पाती थी.
सर्दियों की शुरुआत मेरे लिए बचपन के पहाडों की ढेरों स्मृतियों को बटोर लाने की होती है. आज भी यहाँ दिल्ली में बैठी उस घर को याद कर रही हूँ जो शायद अब सिर्फ मेरी कल्पनाओं में बचा है . बाहर से उसकी शक्ल ज़रूर मेरे उस घर से मिलती-जुलती है, भीतर से वह बदल गया है , पूरी तरह .

Friday, October 5, 2007

स्वर्ग में उपजे सवाल

दिल्ली की भागमभाग और व्यस्तता ने जब मन को खिन्न कर दिया तो हमने उत्तरांचल की तरफ कदम बदाये . नैनीताल में रुकने का मतलब था फिर से भीड़ मे घिर जाना, लिहाजा हम आगे बढ़े . भीमताल, रामगढ होते हुये मुक्तेश्वेर पहुंचे . वहा एक सर्द रात गुज़ारने के बाद मुझे याद आया कि यही कही मेरी दोस्त ने अपना रिसॉर्ट भी बनाया है . मुक्तेश्वेर के आगे था फॉरेस्ट विभाग का घना जंगल . किसी ने कहा संभल कर जाना, अभी भी यहां कभीकभार शेर, चीते दिख जाते है. बहुत दिनों के बाद इतना घना जंगल देखने को मिल रहा था . मुझे याद आने लगा खटीमा, जहाँ मेरा बचपन बीता था और कुछ-कुछ पढ़ाई-लिखाई हुई थी । बिजली विभाग की इस छोटी सी कालोनी लोहियाहेड और खटीमा के बीच खासा जंगल हुआ करता था । कई बार जब खटीमा आते-जाते वक़्त स्कूल बस ख़राब हो जाती तो हमे पैदल मार्च करना पड़ता और हालत पतली हो जाती कि कही रास्ते मे शेर मिल गया तो क्या करेंगे, मगर बचपन के डर भी जल्दी ख़त्म हो जाया करते, क्योकि बेर की झाडियाँ दिख जातीं और हम जंगली बेर खाने मे मस्त हो जाते . बहरहाल बात हो रही थी मुक्तेश्वेर की और हम कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ गए . मुक्तेश्वेर मे पी डब्लू डी के गेस्ट हॉउस मे ठण्डी रात बिताने के बावजूद मैं अलस्सुबह पहाड़ी पैदल रास्तों मे चलने का लुत्फ़ खोना नही चाहती थी, इसलिये जल्दी सो गयी ताकि नीद समय पर खुल जाये . रात मे सामने के पहाड़ पर टिमटिमाती रौशनी की कतारों को देख कर मैने पूछा गेस्ट हॉउस के चौकीदार से -ये तो पूरा शहर दिखता है, कौन सी जगह है यह? जवाब मिला- अल्मोड़ा, सिर्फ १६-१७ किलोमीटर का पैदल रास्ता है . इतनी रौशनी मे नहाया हुआ जिला तो अल्मोड़ा ही हो सकता है . मुझे हंसी आ गयी . माँ बताती थी पहले अल्मोड़ा पूरे कुमाऊ की शान हुआ करता था . उसे शाहो का देश कहा जाता था, क्योंकि वहां अमीर लोग बसा करते थे और वहीं आसपास का प्रमुख हाट हुआ करता था . अल्मोड़ा की बाल मिठाई आज भी मशहूर है . बेड पाको बारामास वाला गाना आज भले ही पेप्सी या आमिर खान का हो गया हो लेकिन यह जन्मा अल्मोड़ा की ही धरती पर था । अगले दिन किसी तरह सोनापानी के उस रिसोर्ट के बारे मे पता चल सका, जो मेरी दोस्त । और उसके पति ने पिछले ५-६ सालों मे तैयार किया है । जंगल वाला रास्ता गाडी के लिहाज थोडा मुश्किल ज़रूर था मगर था छोटा, इस लिए इसी को पकड़ा गया . एक जगह गाडी रोकने के बाद पैदल रास्ता था क़रीब डेढ़ किलोमीटर का, यहाँ तक आते-आते सूरज सिर पर चढ़ चूका था, स्वेटर-शॉल अब बदन पर चुनचुनाहट पैदा करने लगे थे . एकबारगी तो लगा कि दोस्त ने गोली दे दी है, इतने निर्जन-वीरान से इलाके मे भला कुछ हो सकता है. रास्ते मे चमकदार अभ्रक जैसे पत्थर, कुछ सोने तो कुछ चांदी जैसे चमकते ' मायका ' पत्थर तीखी धूप मे अपनी गर्माहट का चुभता हुआ एहसास पैरों को दिलाने लगे थे . लेकिन रास्ते के दोनों तरफ सेब, नाश्पाती, आडू और आलूबुखारा से लदे-झुके पेड मन को शीतलता प्रदान कर रहे थे, साथ ही उनकी खुशबू से सराबोर हम ललचाये से तक रहे थे ।
आखिरकार २० एकड़ मे फैला रिसॉर्ट आ गया और एहसास हुआ इसी को ' जंगल मे मंगल' कहते है . देसी-विदेशी पर्यटक टहलकदमी करते, बडे से डायनिंग हॉल मे पके खाने की खुशबू, भूख जोरो से लग आयी थी . जगह-जगह अपनी दोस्त की कलात्मक अभिरुचि का नज़ारा देखने को मिला सुन्दर से गमलों, लैम्पशेड और हैंगिंग बास्केट्स के रूप मे . छोटी-छोटी १०-१२ कॉटेज और हर एक के आगे रंग-बिरंगे फूल-पौधे और कई तरह के हर्ब . सब मित्र की कल्पनाओं और मेहनत का नतीजा .
स्वर्ग चाहे कितना भी सुन्दर हो -वहां बग़ैर काम के कितने दिन रहा जा सकता है . इस सारी सुन्दरता के बीच भी एक सवाल लगातार मन मे कौंधता रहा कि यहाँ के जो तमाम लोग औने-पौने दामों में अपनी बडे बिजनैसमेनों और बिल्डरों को दे रहे हैं और उत्तरांचल सरकार पर्यटन उद्योग को बढावा देने के नाम पर जिस तरह जानी-अनजानी खूबसूरत जगहों का व्यवसायीकरण करने मे जुटी है -उस से पहाडों को कितना नुकसान हो रहा है क्या इस बात पर कोई सोच पा रहा है? सभी यही कहते दिखे कि वे इको-फ्रेंडली काम कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह नैनीताल शहर में चायना पीक के ठीक नीचे अंधाधुन्द तरीके से असंख्य कालोनी बस गयी हैं और बाहर से आकर पर्यटक जिस तरह नैनी झील को गंदा कर रहे हैं, उस से उत्तरांचल सरकार को क्या कोई सरोकार नहीं है? जगह- जगह भूरे और खाली होते जा रहे पहाड़ों को देख कर, ब्लास्टिंग और तेजी से फैलती जा रही रिसॉर्ट संस्कृति को देख कर यही सवाल बार-बार मन को मथ रहा है कि यहाँ कुछ वर्षों के बाद कितना सौंदर्य बचा रह जायेगा.
स्थानीय लोगों को अस्थाई तौर पर कुछ पैसा और रोजगार मिल जा रह है, वे इसी में खुश हैं . उन्हें भविष्य सुखद प्रतीत हो रहा है . मगर पहाड़ों पर मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई के बडे बिल्डरों की ललचाई नज़र जिस तरीके से भविष्य में होने वाले सर्वनाश की ओर इशारा कर रही है, उसे अभी से क्यों नहीं समझा जाना चाहिए ? दूसरी ओर खूबसूरती पर बदनुमा धब्बे, जो यहाँ-वहां पेप्सी की खाली बोतलों, चिप्स के पैकेटों, पोलीथीनों की शक्ल में बिखरे दिख जाते हैं, उस से इस अप्रतिम सौन्दर्य को कितना नुकसान हो रहा है, इस पर सोचने और अमल करने की ज़रूरत है . पिछली बार पिथोरागढ़ जाने पर एक ही बात अच्छी लगी कि वहां कहीं भी बाजारों, सड़कों या नालियों में पोलीथीन नज़र नहीं आये . सब्जी मार्केट में लोगों को कागज़ के थैले, कपडे के झोले थामे देख कर अच्छा लगा, काश ऎसी परम्परा हर कहीं शुरू हो पाती!